द्वंद्व (कविता)
दोहरी होती गयी
हर चीज़
दोहरी होती
आस्थाएं, विश्वास, कर्त्तव्य
आत्मा और
फिर उसकी आवाज.
एक तार को
एक ही सुर में
छेड़ने पर भी
अलग-अलग
परिस्थितियों में
देने लगा
अलग-अलग राग,
जैसे वोह कोई और था
और यह है
और कोई साज़.
अपने से द्वंद्व करते-करते
खत्म करता रहा
अपने ही दो हिस्से
और झपटता रहा
स्वयं पर ही
बन कर
चील, गिद्ध और बाज़.
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